गुरुवार, 9 अगस्त 2012

इस अंक का आवरण - रमण सिन्हा




आवरण , आकल्पन ( लेआउट ) या कवर डिजाइन ; 'पुस्तक चित्रांकन' (बुक इलस्ट्रेशन) जैसी कला है, जहाँ चित्रांकन स्वायत्त नहीं होता, बल्कि पुस्तक की अंतर्वस्तु से निर्मित होता है. यही नहीं बल्कि शब्द एवं चित्र के रंगों की दृष्टिगोचरता , कैनवास के सीमित आकार इस कला रूप की व्यावहारिक सीमाएं बन जाती हैं. आवरण के आकल्पन का मुख्य ध्येय शब्दांकन ( लेटरिंग) रेखांकन (ग्राफिक्स) व चित्रांकन( पेंटिंग) का ऐसा संयोजन ढूँढना होता है कि दर्शक का सहज ही ध्यानाकर्षण हो सके. यूरोप में पुस्तक के मुखपृष्ठ , पीछे के पृष्ठ एवं पुट्ठे( स्पाईन) के आकल्पन के लिए बड़े प्रकाशक अलग अलग विशेषज्ञ कलाकारों की सेवायें लेते हैं. अब वहाँ आवरण पृष्ठ का मुख्य कार्य , जिल्द को बचाना ही नहीं रहा , बल्कि वह किताब की बिक्री को प्रभावित करने वाला सबसे सक्षम कारक बन गया है. यह सच है कि व्यवसाय के दबाव में ही सही, यूरोप में कवर डिजाइनिंग एक स्वतंत्र कला का रूप ले चुकी है. जिसके प्रमाण ब्रास संग्रहालय, होकेन पुस्तकालय-संग्रहालय एवं ऑकलैंड सिटी लाइब्रेरी के हेनरी shaw जैकेट संग्रह में देखे जा सकते हैं. ज़ाहिर है कि भारत में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. यहाँ के प्रकाशक पर व्यवसाय का कोई ऐसा दबाव भी नहीं है. वे पुस्तक बिक्री के लिए आवरण सज्जा को आकर्षक बनाने के लिए कलाकारों की शरण में जाने की बजाय पुस्तकालयाध्यक्ष को कमीशन देकर यह काम आसानी से कर लेते हैं, फिर यहाँ के लेखक भी शायद ही  कभी अपनी पुस्तक की आवरण सज्जा में कोई रूचि दिखाते हैं ! इसलिए यह आकस्मिक नहीं कि यहाँ की किताबों में , विशेषकर अधिकाँश हिंदी किताबों में आवरण , आकल्पन को कोई श्रेय भी नहीं दिया जाता. इसके बावजूद अरविन्द कुमार, सुरेन्द्र राजन , हरिपाल त्यागी , रामकिशोर पारचा , गिरिधर उपाध्याय , सोरित एवं गोबिंद प्रसाद का काम आश्वस्त करता है.

प्रस्तुत चित्र गोबिंद प्रसाद के अधिकाँश आवरण चित्रों की तरह अमूर्त है एवं पोस्टर रंग से बनाया गया है. सफ़ेद, लाल , पीले , धूसर मटमैले रंगों के बीच छिटकती हुई नीली रेखाएँ ब्रह्माण्ड के किसी रूपाकार का अनुकरण नहीं करती और ना किसी सांसारिक स्थिति की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति बनने की चेष्टा ही करती हैं; बल्कि यह मन के किसी सचेत राग को किसी दिशा में उन्मुक्त करती स्फूर्ति का आभास कराती हैं. ऐसे बहुरंगी चित्र का उपयोग आवरण सज्जा के समग्र आकल्पन में रंग-संगति के लिए काफी सहायक होता है, साथ ही अपनी प्रकृति में अमूर्त होने के कारण किसी भी पुस्तक की भाव संगति बैठाने में भी काफी मददगार साबित होता है. 

बुधवार, 8 अगस्त 2012

अक्षरौटी : एक सपने का पुनर्जागरण

अक्षरौटी : अभिव्यक्ति के तरीके , माध्यम और उपाय 




नोट- यह 'अक्षरौटी' का एक मात्र अंक है. यहाँ इस ब्लॉग की पहली पोस्ट के रूप में इसका सम्पादकीय लिख रहे हैं. धीरे धीरे 'प्रवेशांक' की सारी सामग्री यहाँ डाली जाएगी. नयी रचनाएँ आमंत्रित हैं. यह एक अनियमित पत्रिका ही होगी फिलहाल. हम कोशिश करेंगे कि इसके त्रयमासिक स्वरुप को बचाए रखें. आपका सहयोग और सुझाव बहुमूल्य होगा.

पता-
thenilambuj@gmail.com
या
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स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर आज के असहिष्णु समय के असहिष्णु लोगों द्वारा तमाम बाधाएं खड़ी की जा रही हैं. ऐसे समय में किसी भी नयी रचनात्मक अभिव्यक्ति का होना खुद एक जिरह है. अब हमें 'अभिव्यक्ति के खतरे' तो उठाने ही होंगे. ज़ाहिर है, कुछ 'मठ' और 'गढ़' इस से ज़रूर प्रभावित होंगे. स्वच्छंद पूँजी के गर्भ से उपजी तमाम 'साहित्यिक' और 'सांस्कृतिक' गतिविधियाँ प्रबुद्ध पाठकों से छिपी नहीं हैं. यहाँ हम कोई दावा लेकर तो प्रस्तुत नहीं हुए लेकिन अपने पाठकों को ये विश्वास दिलाएँगे कि इसे पढकर आप 'ठगा सा' महसूस नहीं करेंगे.

बहरहाल , पत्रिका कोई भी हो , वह विवाद पैदा नहीं करती , महज़ जनहित में एक वाद दायर करती है. उस वाद के आलोक में आगे क्या बहस होगी , अमृतकलश की प्राप्ति होगी , या हलाहल मिलेगा , यह तय करने वाले तो पाठक ही हो सकते हैं. लेखक , आलोचक और प्रकाशक के अतिरिक्त साहित्य में 'पाठक' के रूप में चौथे वर्ग की भूमिका कहने को तो बहुत सशक्त है ( चूंकि बाज़ार ही वही है ) किन्तु इधर साहित्य के इस चौथे खम्भे की चिनाई ज़रा कमज़ोर होती जान पड़ती है. हम पाठकों को अपने संवाद में शामिल करना हेठी समझने लगे हैं. कुछ जगहों को छोड़कर हिंदी की तमाम पत्रिकाओं में पाठकों के पत्र केवल खानापूर्ति के लिए शामिल किये जाने लगे हैं.

क्या हमने कभी सोचा है कि पाठक की प्रतिक्रिया महज 'प्रतिक्रिया' के कॉलम में छप जाने भर से पूरी नहीं हो जाती , बल्कि वह तो बदलाव के गुहार की एक ज़बरदस्त खदबदाहट होती है , सो उसकी सम्मति लेते हुए हमें बदलावों की ओर भी किंचित तो खिसकना ही चाहिए. किन्तु धारणा कुछ ऐसी है कि पाठक समझदार नहीं हो सकता ( गोया समझदार सिर्फ आलोचक ही हो सकता है ) अथवा वह किसी कहानी , कविता या लेख का संतुलित मूल्यांकन नहीं कर सकता. हालाँकि इंटरनेट पर हिंदी के प्रसार और सोशल मीडिया में हिंदी के डोमेन में वृद्धि के कारण अब पहले से ज्यादा पाठक , 'आलोचक' बन रहे हैं , फिर भी पत्रिकाओं का 'पवित्र' घर अभी भी पाठकों को कामचलाऊ स्तंभ के रूप में ही देखता है.  क्या पाठक की यह प्रतिक्रिया कि 'रचना दिल को छू गयी' से अधिक ईमानदार आलोचना सकारात्मक रूप से संभव है ? इस से सहमत ना होने वालों ने क्या कभी इस कथन की विनाशकता की ओर ध्यान दिया है , जहाँ एक पाठक की प्रतिक्रिया यह हो कि ' रचना समझ में नहीं आई'. लोगों ने शायद इस मर्म को प्रशंसा के उलटे अर्थ में लेना शुरू कर दिया है , जैसे कि रचना गूढ़ होने के कारण इतनी अलौकिक और अद्वितीय बन पड़ी है कि उसके लिए 'दिव्य दृष्टि' की क्षमता वाले पाठकों की मौजूदगी ज़रूरी है. दूसरी ओर , इन चीज़ों के बीच साहित्य की लोकप्रियता उतारकर क्यों रसातल में में समा रही है, यदि हम इसके ईमानदार चिंतन की तरफ उन्मुख नहीं हो सकते, तो संभवतः अपनी भाषा और साहित्य के प्रति प्रति भी ईमानदार नहीं हो सकते.

साहित्य की जड़ों के अवलोकन में और आगे बढ़ें तो उन लोगों पर भी बात करनी पड़ेगी जो ना लेखक हैं, ना प्रकाशक , ना आलोचक हैं और न ही ठीक-ठाक पाठक ही हैं. यह वह वर्ग है जो साहित्य को आम पाठकों तक पहुंचाता है. इनमें क्षेत्रीय विक्रेता से लेकर होल सेलर तक सब शामिल हैं. हमारी कोशिश रहेगी कि साहित्य के प्रति उदासीन रहने वाले इन लोगों के बारे में 'कुछ बातें' आगामी अंकों में भी जारी रहेगी.

यूँ तो दिल्ली राजधानी है और साहित्य के भी गढ़ के रूप में जानी जाती है. दिक्कत यही है कि इन गढों की किलेबंदी बड़ी मज़बूत है. विचार ही नहीं , साहित्य का मूर्त रूप - पुस्तकें और पत्रिकाएं भी सीमित जगहों पर ही मिलती हैं. भला हो इंटरनेट का , यहाँ ज्यादा सुलभ है साहित्य. इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है - अक्षरौटी .
उपेक्षाओं पर प्रकाश डालने के बहाने एक बात और. हिंदी साहित्य के भव्य दरबार में आज तक कुछ श्रेणियों को हाशिए पर ही रखा गया है, मसलन बाल साहित्य और 'लोकप्रिय साहित्य'( जिसे प्रायः सड़क छाप साहित्य कह दिया जाता है). यह हिंदी की आगामी पीढ़ी तैयार करने के प्रति हमारी गंभीर लापरवाही कही जा सकती है. हमें स्पष्ट तौर पर अपने वर्तमान के प्रति ईमानदार रहना होगा , वरना भविष्य का सामना हम सहजता से नहीं कर सकेंगे.

कुल मिलाकर लंबे समय के अपने प्रयासों को आप सभी तक पहुँचाने में कुछ राहत महसूस हो रही है. साहित्य में युवाओं की कमी को महसूस करने वाले लोगों को यह बताते हुए हमें खुशी हो रही है कि 'अक्षरौटी' के सभी सदस्य युवा हैं. तो एक बात ये भी कि हमारे प्रयासों की आलोचना हो, बस इस बात को याद रखा जाए -

"कलम हूँ बच्चे का , तख्ती नई नई हूँ मैं"- बशीर बद्र




संपादक मंडल - नीलाम्बुज सिंह ,पंकज कुमार बोस , घनश्याम कुमार 'देवांश'

कला संपादक- चिराग जैन

चित्रांकन- राजेश कुमार
आवरण - डॉ. गोविन्द प्रसाद