सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

शबनम खान का रिव्यू : इंगलिश विंगलिश


17 सालों के लंबे वक़्त के बाद अपने ज़माने की बेहतरीन अदाकारा जब परदे पर वापसी करती है तो उसके साथ दर्शकों की ढेरों उम्मीदें जुड़ी होना लाज़मी हो जाता है। मिस्टर इंडिया, चांदनी और चालबाज़ जैसी कईं फिल्मों में अपने एक ख़ास किस्म के अभिनए, ख़ूबसूरती और चंचल अदाओं के लिए याद किए जाने वाली श्रीदेवी ने हाल ही में गौरी शिंदे के निर्देशन में बनी फ़िल्म इंग्लिश-विंग्लिश से फिल्मों में वापसी की है। हालांकि वह पहली अदाकारा नहीं हैं जिसने एक लंबे वक़्त के बाद फिल्मों में कमबैक किया है। इस फहरिस्त में माधुरी दीक्षित, करिश्मा कपूर, डिंपल कपाड़ियां भी शामिल हैं। लेकिन कहीं न कहीं वे सभी दर्शकों की उम्मीदों पर उतनी खरी नहीं उतर सकी जितनी श्रीदेवी उतरती दिखाई पड़ी हैं।

कुछ यूं हैं कहानी
एक गृहिणी शशि गोडबोले (श्रीदेवी) अपनी छोटी सी दुनिया में ख़ुश तो हैं लेकिन अंग्रेज़ी न बोल पाने की टीस हमेशा उसके मन में रहती है। स्वादिष्ट लड्डू बनाने का घरेलू बिज़नेस कर वो अपने क्लाइंट्स को तो ख़ुश रख लेती है लेकिन अंग्रेज़ी न बोल-समझ पाने के कारण अपनी बेटी की शर्मिंदगी का कारण बनती है। अंग्रेज़ी के ग़लत उच्चारण, भाषा को समझ न पाने और टूटी-फूटी ग़लत अंग्रेज़ी बोलने के कारण उसके बच्चे और पति अक़्सर उसका मज़ाक बनाते हैं और वो इस बात से घुटती रहती है। शशि की ज़िंदगी में मोड़ तब आता है जब अपनी भांजी की शादी में शामिल होने के लिए वह अकेली अमेरिका जाती है। एक ऐसे देश में जहां अंग्रेज़ी बोली समझी जाती है, श्रीदेवी को बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता है और उसे अंग्रेज़ी न आना और ज़्यादा परेशान करने लग जाता है। ऐसे वक़्त में शशि तय करती है कि अब वो अपनी पहचान खुद बनाएंगी और अंग्रेजी भाषा सीख कर रहेंगी। चार हफ्तों में वो इंग्लिश लर्निंग क्लासेज़ जॉइन करके, न केवल अपनी लगन से वह अंग्रेज़ी बोलना सीख जाती हैं बल्कि अपने क्लास के दूसरे लोगों से लगातार तारीफ मिलने के कारण अपने आपको आत्मविश्वास से भरा पाती हैं। अंत में जब शशि के परिवार वालों के सामने उसका ये राज़ खुलता है तो सब हैरान रह जाते हैं।


फिल्म की रूह हैं ये सीन
हालांकि फिल्म दर्शकों को शुरू से आख़िर तक अपने साथ बांधे रखती है लेकिन कुछ सीन इतने ख़ास बन पड़े हैं कि दर्शक सिनेमा हॉल से बाहर निकलकर भी उन्हें अपने साथ ले जाते हैं। खाने की मेज़ पर अपने क़ामयाब पति और दो बच्चों के सामने अंग्रेज़ी का ग़लत उच्चारण करने पर शशि का शर्मिंदा और उदास हो जाना, कहीं न कहीं दर्शकों के दिल में भी दर्द पैदा कर देता है। वहीं एक दूसरे सीन में घबराई हुई शशि जब अपनी 12-13 साल की बेटी की पैरेंट्स-टीचर मीटिंग में जाती है तो किस तरह वो अंग्रेज़ी में बात कर रहे उसके टीचर की बात मुश्किल से समझती है और फिर अपनी नाराज़ बेटी के तल्ख़ रूख का सामना करती है। एक इसी तरह का वाकया तब पेश आजा है जब अमेरिका में शशि एक फूड जॉइंट में जाती है और अंग्रेज़ी न जान पाने के कारण बुरी तरह घबरा जाती हैं। वो सीन देखते हुए दर्शकों को अपनी आंखों में भी वैसी ही नमी महसूस होने लगती है जैसी शशि की आंखों में दिखती है। फिल्म का एक और पहलू जो हल्के से दर्शकों के दिलों को गुदगुदाता है, वो उसकी क्लास में पढ़ने वाले फ्रांसीसी पुरूष का शशि के प्रति आकर्षण हैं। दोनों एक दूसरे की भाषा न समझने के बावजूद कैसे एक-दूसरे की बात समझने की कोशिश करते हैं, वो सीन फिल्म में जान डाल देते हैं। फिल्म के आख़िरी सीन में अपनी भांजी की शादी के बाद जब शशि सबको संबोधित करके अंग्रेज़ी में भाषण देती हैं तो उनके साथ-साथ दर्शकों को भी महसूस होने लगता है कि जैसे सच में उन्होंने ही कोई बाज़ी मार ली है। भारतीय मध्यम वर्गीय परिवार जिसके बड़े-बुज़ुर्ग अपने बच्चों और सोसायटी का साथ बनाने के लिए अंग्रेज़ी से जूझ रहे हैं, वो अपने आपको इस फिल्म से जुड़ा हुआ पाते हैं।


कहीं कम कहीं ज़्यादा
गौरी शिंदे के निर्देशन में बनी ये पहली फिल्म बहुत सीधी और ईमानदार है, इसको ज़बरदस्ती टेढ़ा नहीं बनाया गया। फिल्म देखने के दौरान ये महसूस होता है कि ज़रूरत के दृश्यों को ही फिल्म में डाला गया है और ज़बरदस्ती की चमक-दमक दिखाने से परहेज़ किया गया है। न्यूयॉर्क की चमकती सकड़ों की बजाए फोकस रिश्तों और इंसान के जज़्बातों पर किया गया है। गौरी का निर्देशन इसलिए क़ाबिले तारीफ़ है क्योंकि उन्होंने बहुत सधे ढंग से फिल्म का ट्रीटमेंट किया है जिससे फिल्म कहीं नहीं बिखरती। फिल्म में अमिताभ बच्चन मेहमान भूमिका में नज़र तो आए लेकिन कुछ खास असर नहीं छोड़ पाए। सीधे लफ़्ज़ों में कहें तो अगर ये सीन फिल्म में नहीं होते तब भी चलता।

संगीत-

फिल्म का कमज़ोर पहलू उसका संगीत है। हमारे देश में दर्शक का बड़ा वर्ग वो है जिसे सिर्फ अच्छे संगीत के दम पर ही सिमेला हॉल तक ख़ीचा जा सकता है, लेकिन संगीतकार अमित त्रिवेदी और गीतकार स्वानद किरकिरे यहां कमज़ोर दिखे। फिल्म में टाइटल सॉन्ग समेत कोई ऐसा गाना नहीं है जिसे गुनगुनाते हुए दर्शक हॉल में घुसे या बाहर निकले। इस पर और ध्यान दिया जाता तो फिल्म का संगीत पक्ष भी अच्छा हो सकने की गुंजाइश थी। इसके अलावा, फिल्म कहीं कहीं कंफ्यूज़ भी दिखाई देती है कि असल में उसका विषय इंग्लिश भाषा की अनिवार्यता है या एक महिला का आत्मसम्मान।
बहरहाल, ईमानदारी से कहा जाए तो फिल्म की कहानी में कोई ताज़ापन नहीं है। जो चीज़ ख़ास है वो ये कि श्रीदेवी ने बहुत अच्छा अभिनय किया है। श्रीदेवी की इस वापसी को शानदार और ज़बरदस्त वापसी की बजाए जानदार वापसी कहा जाए तो बेहतर होगा। वहीं गौरी शिंदे की भी इस बात की तारीफ़ की जानी चाहिएं कि उन्होंने श्रीदेवी को फिल्म की जान बना दिया। जहां श्रीदेवी पर्दे पर हिट साबित हुईं हैं वहीं गौरी ने पर्दे के पीछे रहकर बतौर निर्देशक अपने आपको इस फिल्म इंडस्ट्री में टिके रहने के क़ाबिल बताया है। फिल्म देखने के बाद दर्शकों को श्रीदेवी की अगली फ़िल्म का इंतज़ार ज़रूर रहेगा।
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लेखिका : शबनम खान 

दिल्ली में जन्म हुआ और वहीं से सारी पढ़ाई लिखाई। दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन और जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद प्रिंट और वेब मीडिया में दो साल काम किया..साथ ही साथ सक्रिय रूप से सोशल मीडिया से जुड़ी रहीं। नज़्म और अफसाने लिखने का शौक़ बचपन में ही पाल लिया था जो अब सर चढ़कर बोलने लगा है। इसके अलावा हिंदी-उर्दू साहित्य पढ़ने की शौक़ीन हैं। आज कल पुणे में। उनसे khanshab.369@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। 




मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

रू-ब-रू : हम भी हैं यहाँ

"एक कुशल पुस्तक विक्रेता वही हो सकता है , जो पाठक या ग्राहक की इच्छाओं के अनुरूप कार्य करे। ग्राहक के समक्ष अच्छी से अच्छी स्तरीय  पुस्तक को प्रस्तुत करे। यह कोई ज़रूरी नहीं है कि पाठक कथाकार संजीव का उपन्यास 'सूत्रधार' या कंपटीशन साइंस विजन मांगे , तो सिर्फ वही दिखाया जाए। यदि संभव हो और पुस्तकें-पत्रिकाएँ मौजूद हो  तो कोशिश यह करनी चाहिए कि पाठक को संजीव की अन्य कृतियों या दूसरी साहित्यिक कृतियों या ज्ञान-विज्ञान से जुड़ी अन्य पत्र पत्रिकाओं को भी दिखाये। " - श्री राजेन्द्र कुमार , सरस्वती पुस्तक भंडार , बलिया  





ये है अक्षरौटी में प्रकाशित रू-ब-रू स्तम्भ । साथी धर्मेन्द्र मौलवी ने पुस्तक विक्रेता श्री राजेन्द्र कुमार जी का इंटरव्यू लिया है। पढ़िये और अपनी टिप्पणियाँ  दीजिये। यही हमारा मार्गदर्शन करेंगी । 

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

सजन से झूठ मत बोलो

फिल्म समीक्षा के स्तम्भ " सजन से झूठ मत बोलो" के लिए प्रविष्टियाँ आमंत्रित हैं। इसमें गीत-संगीत और कहानी की अलग अलग समीक्षा होगी। 

रविवार, 16 सितंबर 2012

पंखुरी सिन्हा की कवितायें





उनकी बैठक
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अपनी बैठक पर उन्हें खासा फ़क्र था
'उन्हें' से ज्यादा 'उसे'
टीक की लकड़ी का आयात कर
उन्होंने दीवान बनवाया था ,
और चार कुर्सियाँ।
फैशनेबल फर्नीचर शो-रूम से
सोफ़े खरीदे गए थे ,
और उसने सजाया था इस सब कुछ को
स्टेट इम्पोरियम के हस्त-शिल्प से,
ट्राइबल पेंटिंग्स
सीप के पर्दे
पर लोगों को कुछ भी पसंद नहीं
उसका अपना अंदाज़ तक नहीं
बालूचरी सूती साड़ियाँ
बिना काजल बिंदी वाला ,
उसका अक्स नहीं
तेज़ आवाज़ नहीं
लोगों को कुछ भी पसंद नहीं ,
जबकि सबकुछ मध्यवर्गीय था ,
सारे कमाए हुए पैसे ,
रिश्वत की एक दमड़ी नहीं
पर अकड़ बहुत थी उसमें
और हातों के बाहर का माद्दा बहुत
इसलिए उस बैठक में होने वाली
सारी  बातों की परिणति,
भयंकर बहसों में हो रही थी ,
और अगर वह नाकाफी था ,
तो शहर में,
इन्टरनेट नामक उस जादुई जगह पर,
सबके  अपने अपने पन्ने थे ,
सिर्फ उसके खयाल पूरी तरह आयातित,
और आयातित ख़यालों की वजह से,
वह एक विदेशी गुड़िया कहलाती जा रही थी
और जानकारों का कहना था ,
कि पुरानी थी सब बातें
लेकिन नया था उनका मंचन,
नए प्रयोग थे,
नया था नदी का प्रवाह,
नए विकल्प  थे ,
नई थी इतने एहसासों की बातें ,
मनुष्यता पर इतना बल
दोनों खेमों की पहचान की लड़ाई से इतर,
सिर्फ मनुष्यता से इतना बल
ये क्रॉस बॉर्डर बातें,
और वह पिरोती जा रही थी ,
उन्मुक्त भावों को ,
सबकी नापसंदगी के बावजूद,
उसकी दलील थी ,
कि अपनी पसंद से सजने चाहिए,
सबके पन्ने ,
सजनी चाहिए ,
सबकी बैठक
और उसकी दलील थी ,
कि बाज़ार बहुत कुछ था
पर सब कुछ नहीं ,
और उसकी दलील थी ,
कि बाज़ार बड़ी आसानी से,
द्रवित होने वाला ,
सरल तत्वों से बना ,
एक नरम दिल हस्ती था -
जिससे बातें की जा सकती थीं ,
उसकी दलील थी कि ,
उसे किसी भी क्षेत्र को
आयात क्षेत्र में नहीं बदलना था ,
एक बराबर की अनुभव वार्ता करनी थी।
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2-गुरिल्ला वार

क्या आपने लड़ी है ,
कभी ऐसी कोई लड़ाई
आखिरी मोर्चे की लड़ाई,
दुश्मन के करीब आते ,
उसकी पदचाप सुनते
उसके बेहद कीमती,
नफीस बूटों की आवाज़ सुनते ,
ये जानते कि कितनी ताकतवर है उसकी बंदूक,
कितना अचूक उसका निशाना ,
लड़ना, एक नितांत अपरिचित जंगल में ,
जिसकी लताएँ कँटीली हों ,
चट्टानें नुकीली,
बारिश का वेग भयंकर हो ,
खड़े हो पाना नामुमकिन ,
पेट के बल चलकर ,
हाथ और पैर दोनों से चलकर ,
चारों से चलकर ,
कभी की है आपने कोई लड़ाई ?
अपने से ज्यादा ताकतवर,
शत्रु को पछाड़ते ,
कुनैन की आखिरी गोली खाकर ?
कभी की है आपने कोई लड़ाई ?
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कवयित्री-
* दो कहानी संग्रह 'कोई भी दिन' और 'किस्सा-ए-कोहिनूर' ज्ञानपीठ से प्रकाशित,
*कविता संग्रह 'ककहरा' शीघ्र प्रकाश्य
* गिरिजा कुमार माथुर -पुरस्कार 1995
* चित्रा कुमार-शैलेश मटियानी
* संप्रति - कनाडा में रहकर  स्वतंत्र लेखन ।
उनसे sinhapankhuri412@yahoo.ca पर संपर्क किया जा सकता है ।











शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

हमारे नए ,पुराने स्थायी-स्तम्भ और उनका विवरण - ( कुछ नाम बदल दिये गए हैं )-



1- ये कौन चित्रकार है ( अंक के आवरण पर विचार)
2- कथा-दीर्घा ( तीन बेहतरीन कहानियाँ )
3- काव्य-सरिता ( पाँच कवि: कम से कम दो कवितायें प्रत्येक की )
4- माटी की ओर ( लोक संस्कृति को समर्पित )
5- मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ ( ग़ज़लें)
6- प्रतिमान ( प्रसिद्ध रचना और रचनाकार का परिचय )
7- रू-ब-रू ( एक या दो साक्षात्कार )
8- बज़

्म: चुनिन्दा शायरी का संकलन
9- सिर-फुटौवल ( व्यंग्य)
10- निकष ( समीक्षाएं )
11- रपट ( रिपोर्ताज)
12- काँटों से खींच के ये आँचल ( सिनेमा )
13- बच्चे मन के सच्चे ( बाल-साहित्य)
14- यार से छेड़ चली जाय ( विमर्श )
15- राग-विराग ( संगीत पर चर्चा )
16-छाप ( रचनाकारों की हस्तलिपि में उनकी रचनाएँ - बैक कवर के रूप में )

संपादकीय और चिट्ठी पत्री तो रहेंगे ही।

इन के अलावा लघुकथाएं , रेखाचित्रों और अन्य रचनाओं का भी स्वागत रहेगा ।

( पत्रिका अव्यावसायिक है अभी । इसलिए कोई बड़ा मानदेय नहीं दिया जाएगा।फिर भी हमारी कोशिश होगी कुछ न कुछ देने की। जो हमसे बन सकेगा। रचनाएँ आमंत्रित हैं । )

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

इस अंक का आवरण - रमण सिन्हा




आवरण , आकल्पन ( लेआउट ) या कवर डिजाइन ; 'पुस्तक चित्रांकन' (बुक इलस्ट्रेशन) जैसी कला है, जहाँ चित्रांकन स्वायत्त नहीं होता, बल्कि पुस्तक की अंतर्वस्तु से निर्मित होता है. यही नहीं बल्कि शब्द एवं चित्र के रंगों की दृष्टिगोचरता , कैनवास के सीमित आकार इस कला रूप की व्यावहारिक सीमाएं बन जाती हैं. आवरण के आकल्पन का मुख्य ध्येय शब्दांकन ( लेटरिंग) रेखांकन (ग्राफिक्स) व चित्रांकन( पेंटिंग) का ऐसा संयोजन ढूँढना होता है कि दर्शक का सहज ही ध्यानाकर्षण हो सके. यूरोप में पुस्तक के मुखपृष्ठ , पीछे के पृष्ठ एवं पुट्ठे( स्पाईन) के आकल्पन के लिए बड़े प्रकाशक अलग अलग विशेषज्ञ कलाकारों की सेवायें लेते हैं. अब वहाँ आवरण पृष्ठ का मुख्य कार्य , जिल्द को बचाना ही नहीं रहा , बल्कि वह किताब की बिक्री को प्रभावित करने वाला सबसे सक्षम कारक बन गया है. यह सच है कि व्यवसाय के दबाव में ही सही, यूरोप में कवर डिजाइनिंग एक स्वतंत्र कला का रूप ले चुकी है. जिसके प्रमाण ब्रास संग्रहालय, होकेन पुस्तकालय-संग्रहालय एवं ऑकलैंड सिटी लाइब्रेरी के हेनरी shaw जैकेट संग्रह में देखे जा सकते हैं. ज़ाहिर है कि भारत में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. यहाँ के प्रकाशक पर व्यवसाय का कोई ऐसा दबाव भी नहीं है. वे पुस्तक बिक्री के लिए आवरण सज्जा को आकर्षक बनाने के लिए कलाकारों की शरण में जाने की बजाय पुस्तकालयाध्यक्ष को कमीशन देकर यह काम आसानी से कर लेते हैं, फिर यहाँ के लेखक भी शायद ही  कभी अपनी पुस्तक की आवरण सज्जा में कोई रूचि दिखाते हैं ! इसलिए यह आकस्मिक नहीं कि यहाँ की किताबों में , विशेषकर अधिकाँश हिंदी किताबों में आवरण , आकल्पन को कोई श्रेय भी नहीं दिया जाता. इसके बावजूद अरविन्द कुमार, सुरेन्द्र राजन , हरिपाल त्यागी , रामकिशोर पारचा , गिरिधर उपाध्याय , सोरित एवं गोबिंद प्रसाद का काम आश्वस्त करता है.

प्रस्तुत चित्र गोबिंद प्रसाद के अधिकाँश आवरण चित्रों की तरह अमूर्त है एवं पोस्टर रंग से बनाया गया है. सफ़ेद, लाल , पीले , धूसर मटमैले रंगों के बीच छिटकती हुई नीली रेखाएँ ब्रह्माण्ड के किसी रूपाकार का अनुकरण नहीं करती और ना किसी सांसारिक स्थिति की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति बनने की चेष्टा ही करती हैं; बल्कि यह मन के किसी सचेत राग को किसी दिशा में उन्मुक्त करती स्फूर्ति का आभास कराती हैं. ऐसे बहुरंगी चित्र का उपयोग आवरण सज्जा के समग्र आकल्पन में रंग-संगति के लिए काफी सहायक होता है, साथ ही अपनी प्रकृति में अमूर्त होने के कारण किसी भी पुस्तक की भाव संगति बैठाने में भी काफी मददगार साबित होता है. 

बुधवार, 8 अगस्त 2012

अक्षरौटी : एक सपने का पुनर्जागरण

अक्षरौटी : अभिव्यक्ति के तरीके , माध्यम और उपाय 




नोट- यह 'अक्षरौटी' का एक मात्र अंक है. यहाँ इस ब्लॉग की पहली पोस्ट के रूप में इसका सम्पादकीय लिख रहे हैं. धीरे धीरे 'प्रवेशांक' की सारी सामग्री यहाँ डाली जाएगी. नयी रचनाएँ आमंत्रित हैं. यह एक अनियमित पत्रिका ही होगी फिलहाल. हम कोशिश करेंगे कि इसके त्रयमासिक स्वरुप को बचाए रखें. आपका सहयोग और सुझाव बहुमूल्य होगा.

पता-
thenilambuj@gmail.com
या
ghanshyamdevansh@gmail.com



स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर आज के असहिष्णु समय के असहिष्णु लोगों द्वारा तमाम बाधाएं खड़ी की जा रही हैं. ऐसे समय में किसी भी नयी रचनात्मक अभिव्यक्ति का होना खुद एक जिरह है. अब हमें 'अभिव्यक्ति के खतरे' तो उठाने ही होंगे. ज़ाहिर है, कुछ 'मठ' और 'गढ़' इस से ज़रूर प्रभावित होंगे. स्वच्छंद पूँजी के गर्भ से उपजी तमाम 'साहित्यिक' और 'सांस्कृतिक' गतिविधियाँ प्रबुद्ध पाठकों से छिपी नहीं हैं. यहाँ हम कोई दावा लेकर तो प्रस्तुत नहीं हुए लेकिन अपने पाठकों को ये विश्वास दिलाएँगे कि इसे पढकर आप 'ठगा सा' महसूस नहीं करेंगे.

बहरहाल , पत्रिका कोई भी हो , वह विवाद पैदा नहीं करती , महज़ जनहित में एक वाद दायर करती है. उस वाद के आलोक में आगे क्या बहस होगी , अमृतकलश की प्राप्ति होगी , या हलाहल मिलेगा , यह तय करने वाले तो पाठक ही हो सकते हैं. लेखक , आलोचक और प्रकाशक के अतिरिक्त साहित्य में 'पाठक' के रूप में चौथे वर्ग की भूमिका कहने को तो बहुत सशक्त है ( चूंकि बाज़ार ही वही है ) किन्तु इधर साहित्य के इस चौथे खम्भे की चिनाई ज़रा कमज़ोर होती जान पड़ती है. हम पाठकों को अपने संवाद में शामिल करना हेठी समझने लगे हैं. कुछ जगहों को छोड़कर हिंदी की तमाम पत्रिकाओं में पाठकों के पत्र केवल खानापूर्ति के लिए शामिल किये जाने लगे हैं.

क्या हमने कभी सोचा है कि पाठक की प्रतिक्रिया महज 'प्रतिक्रिया' के कॉलम में छप जाने भर से पूरी नहीं हो जाती , बल्कि वह तो बदलाव के गुहार की एक ज़बरदस्त खदबदाहट होती है , सो उसकी सम्मति लेते हुए हमें बदलावों की ओर भी किंचित तो खिसकना ही चाहिए. किन्तु धारणा कुछ ऐसी है कि पाठक समझदार नहीं हो सकता ( गोया समझदार सिर्फ आलोचक ही हो सकता है ) अथवा वह किसी कहानी , कविता या लेख का संतुलित मूल्यांकन नहीं कर सकता. हालाँकि इंटरनेट पर हिंदी के प्रसार और सोशल मीडिया में हिंदी के डोमेन में वृद्धि के कारण अब पहले से ज्यादा पाठक , 'आलोचक' बन रहे हैं , फिर भी पत्रिकाओं का 'पवित्र' घर अभी भी पाठकों को कामचलाऊ स्तंभ के रूप में ही देखता है.  क्या पाठक की यह प्रतिक्रिया कि 'रचना दिल को छू गयी' से अधिक ईमानदार आलोचना सकारात्मक रूप से संभव है ? इस से सहमत ना होने वालों ने क्या कभी इस कथन की विनाशकता की ओर ध्यान दिया है , जहाँ एक पाठक की प्रतिक्रिया यह हो कि ' रचना समझ में नहीं आई'. लोगों ने शायद इस मर्म को प्रशंसा के उलटे अर्थ में लेना शुरू कर दिया है , जैसे कि रचना गूढ़ होने के कारण इतनी अलौकिक और अद्वितीय बन पड़ी है कि उसके लिए 'दिव्य दृष्टि' की क्षमता वाले पाठकों की मौजूदगी ज़रूरी है. दूसरी ओर , इन चीज़ों के बीच साहित्य की लोकप्रियता उतारकर क्यों रसातल में में समा रही है, यदि हम इसके ईमानदार चिंतन की तरफ उन्मुख नहीं हो सकते, तो संभवतः अपनी भाषा और साहित्य के प्रति प्रति भी ईमानदार नहीं हो सकते.

साहित्य की जड़ों के अवलोकन में और आगे बढ़ें तो उन लोगों पर भी बात करनी पड़ेगी जो ना लेखक हैं, ना प्रकाशक , ना आलोचक हैं और न ही ठीक-ठाक पाठक ही हैं. यह वह वर्ग है जो साहित्य को आम पाठकों तक पहुंचाता है. इनमें क्षेत्रीय विक्रेता से लेकर होल सेलर तक सब शामिल हैं. हमारी कोशिश रहेगी कि साहित्य के प्रति उदासीन रहने वाले इन लोगों के बारे में 'कुछ बातें' आगामी अंकों में भी जारी रहेगी.

यूँ तो दिल्ली राजधानी है और साहित्य के भी गढ़ के रूप में जानी जाती है. दिक्कत यही है कि इन गढों की किलेबंदी बड़ी मज़बूत है. विचार ही नहीं , साहित्य का मूर्त रूप - पुस्तकें और पत्रिकाएं भी सीमित जगहों पर ही मिलती हैं. भला हो इंटरनेट का , यहाँ ज्यादा सुलभ है साहित्य. इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है - अक्षरौटी .
उपेक्षाओं पर प्रकाश डालने के बहाने एक बात और. हिंदी साहित्य के भव्य दरबार में आज तक कुछ श्रेणियों को हाशिए पर ही रखा गया है, मसलन बाल साहित्य और 'लोकप्रिय साहित्य'( जिसे प्रायः सड़क छाप साहित्य कह दिया जाता है). यह हिंदी की आगामी पीढ़ी तैयार करने के प्रति हमारी गंभीर लापरवाही कही जा सकती है. हमें स्पष्ट तौर पर अपने वर्तमान के प्रति ईमानदार रहना होगा , वरना भविष्य का सामना हम सहजता से नहीं कर सकेंगे.

कुल मिलाकर लंबे समय के अपने प्रयासों को आप सभी तक पहुँचाने में कुछ राहत महसूस हो रही है. साहित्य में युवाओं की कमी को महसूस करने वाले लोगों को यह बताते हुए हमें खुशी हो रही है कि 'अक्षरौटी' के सभी सदस्य युवा हैं. तो एक बात ये भी कि हमारे प्रयासों की आलोचना हो, बस इस बात को याद रखा जाए -

"कलम हूँ बच्चे का , तख्ती नई नई हूँ मैं"- बशीर बद्र




संपादक मंडल - नीलाम्बुज सिंह ,पंकज कुमार बोस , घनश्याम कुमार 'देवांश'

कला संपादक- चिराग जैन

चित्रांकन- राजेश कुमार
आवरण - डॉ. गोविन्द प्रसाद