बुधवार, 8 अगस्त 2012

अक्षरौटी : एक सपने का पुनर्जागरण

अक्षरौटी : अभिव्यक्ति के तरीके , माध्यम और उपाय 




नोट- यह 'अक्षरौटी' का एक मात्र अंक है. यहाँ इस ब्लॉग की पहली पोस्ट के रूप में इसका सम्पादकीय लिख रहे हैं. धीरे धीरे 'प्रवेशांक' की सारी सामग्री यहाँ डाली जाएगी. नयी रचनाएँ आमंत्रित हैं. यह एक अनियमित पत्रिका ही होगी फिलहाल. हम कोशिश करेंगे कि इसके त्रयमासिक स्वरुप को बचाए रखें. आपका सहयोग और सुझाव बहुमूल्य होगा.

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स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर आज के असहिष्णु समय के असहिष्णु लोगों द्वारा तमाम बाधाएं खड़ी की जा रही हैं. ऐसे समय में किसी भी नयी रचनात्मक अभिव्यक्ति का होना खुद एक जिरह है. अब हमें 'अभिव्यक्ति के खतरे' तो उठाने ही होंगे. ज़ाहिर है, कुछ 'मठ' और 'गढ़' इस से ज़रूर प्रभावित होंगे. स्वच्छंद पूँजी के गर्भ से उपजी तमाम 'साहित्यिक' और 'सांस्कृतिक' गतिविधियाँ प्रबुद्ध पाठकों से छिपी नहीं हैं. यहाँ हम कोई दावा लेकर तो प्रस्तुत नहीं हुए लेकिन अपने पाठकों को ये विश्वास दिलाएँगे कि इसे पढकर आप 'ठगा सा' महसूस नहीं करेंगे.

बहरहाल , पत्रिका कोई भी हो , वह विवाद पैदा नहीं करती , महज़ जनहित में एक वाद दायर करती है. उस वाद के आलोक में आगे क्या बहस होगी , अमृतकलश की प्राप्ति होगी , या हलाहल मिलेगा , यह तय करने वाले तो पाठक ही हो सकते हैं. लेखक , आलोचक और प्रकाशक के अतिरिक्त साहित्य में 'पाठक' के रूप में चौथे वर्ग की भूमिका कहने को तो बहुत सशक्त है ( चूंकि बाज़ार ही वही है ) किन्तु इधर साहित्य के इस चौथे खम्भे की चिनाई ज़रा कमज़ोर होती जान पड़ती है. हम पाठकों को अपने संवाद में शामिल करना हेठी समझने लगे हैं. कुछ जगहों को छोड़कर हिंदी की तमाम पत्रिकाओं में पाठकों के पत्र केवल खानापूर्ति के लिए शामिल किये जाने लगे हैं.

क्या हमने कभी सोचा है कि पाठक की प्रतिक्रिया महज 'प्रतिक्रिया' के कॉलम में छप जाने भर से पूरी नहीं हो जाती , बल्कि वह तो बदलाव के गुहार की एक ज़बरदस्त खदबदाहट होती है , सो उसकी सम्मति लेते हुए हमें बदलावों की ओर भी किंचित तो खिसकना ही चाहिए. किन्तु धारणा कुछ ऐसी है कि पाठक समझदार नहीं हो सकता ( गोया समझदार सिर्फ आलोचक ही हो सकता है ) अथवा वह किसी कहानी , कविता या लेख का संतुलित मूल्यांकन नहीं कर सकता. हालाँकि इंटरनेट पर हिंदी के प्रसार और सोशल मीडिया में हिंदी के डोमेन में वृद्धि के कारण अब पहले से ज्यादा पाठक , 'आलोचक' बन रहे हैं , फिर भी पत्रिकाओं का 'पवित्र' घर अभी भी पाठकों को कामचलाऊ स्तंभ के रूप में ही देखता है.  क्या पाठक की यह प्रतिक्रिया कि 'रचना दिल को छू गयी' से अधिक ईमानदार आलोचना सकारात्मक रूप से संभव है ? इस से सहमत ना होने वालों ने क्या कभी इस कथन की विनाशकता की ओर ध्यान दिया है , जहाँ एक पाठक की प्रतिक्रिया यह हो कि ' रचना समझ में नहीं आई'. लोगों ने शायद इस मर्म को प्रशंसा के उलटे अर्थ में लेना शुरू कर दिया है , जैसे कि रचना गूढ़ होने के कारण इतनी अलौकिक और अद्वितीय बन पड़ी है कि उसके लिए 'दिव्य दृष्टि' की क्षमता वाले पाठकों की मौजूदगी ज़रूरी है. दूसरी ओर , इन चीज़ों के बीच साहित्य की लोकप्रियता उतारकर क्यों रसातल में में समा रही है, यदि हम इसके ईमानदार चिंतन की तरफ उन्मुख नहीं हो सकते, तो संभवतः अपनी भाषा और साहित्य के प्रति प्रति भी ईमानदार नहीं हो सकते.

साहित्य की जड़ों के अवलोकन में और आगे बढ़ें तो उन लोगों पर भी बात करनी पड़ेगी जो ना लेखक हैं, ना प्रकाशक , ना आलोचक हैं और न ही ठीक-ठाक पाठक ही हैं. यह वह वर्ग है जो साहित्य को आम पाठकों तक पहुंचाता है. इनमें क्षेत्रीय विक्रेता से लेकर होल सेलर तक सब शामिल हैं. हमारी कोशिश रहेगी कि साहित्य के प्रति उदासीन रहने वाले इन लोगों के बारे में 'कुछ बातें' आगामी अंकों में भी जारी रहेगी.

यूँ तो दिल्ली राजधानी है और साहित्य के भी गढ़ के रूप में जानी जाती है. दिक्कत यही है कि इन गढों की किलेबंदी बड़ी मज़बूत है. विचार ही नहीं , साहित्य का मूर्त रूप - पुस्तकें और पत्रिकाएं भी सीमित जगहों पर ही मिलती हैं. भला हो इंटरनेट का , यहाँ ज्यादा सुलभ है साहित्य. इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है - अक्षरौटी .
उपेक्षाओं पर प्रकाश डालने के बहाने एक बात और. हिंदी साहित्य के भव्य दरबार में आज तक कुछ श्रेणियों को हाशिए पर ही रखा गया है, मसलन बाल साहित्य और 'लोकप्रिय साहित्य'( जिसे प्रायः सड़क छाप साहित्य कह दिया जाता है). यह हिंदी की आगामी पीढ़ी तैयार करने के प्रति हमारी गंभीर लापरवाही कही जा सकती है. हमें स्पष्ट तौर पर अपने वर्तमान के प्रति ईमानदार रहना होगा , वरना भविष्य का सामना हम सहजता से नहीं कर सकेंगे.

कुल मिलाकर लंबे समय के अपने प्रयासों को आप सभी तक पहुँचाने में कुछ राहत महसूस हो रही है. साहित्य में युवाओं की कमी को महसूस करने वाले लोगों को यह बताते हुए हमें खुशी हो रही है कि 'अक्षरौटी' के सभी सदस्य युवा हैं. तो एक बात ये भी कि हमारे प्रयासों की आलोचना हो, बस इस बात को याद रखा जाए -

"कलम हूँ बच्चे का , तख्ती नई नई हूँ मैं"- बशीर बद्र




संपादक मंडल - नीलाम्बुज सिंह ,पंकज कुमार बोस , घनश्याम कुमार 'देवांश'

कला संपादक- चिराग जैन

चित्रांकन- राजेश कुमार
आवरण - डॉ. गोविन्द प्रसाद 

7 टिप्‍पणियां:

  1. समर्थन और स्वागत तथा सहयोग का पक्का वादा.

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  2. बेहतरीन प्रयास, मेरी शुभकामनाएं स्वीकारें। युवाओं में अपने जाने पहचाने लोगों का नाम देखकर अच्छा लगा। जल्द ही कुछ मैं भी लिखकर भेजता हूँ।

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  3. ठीक है तरुण. मुझे भी गंभीर शोध लेख पा कर खुशी होगी.

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  4. बढ़िया शुरुआत के लिए बधाई नीलाम्बुज। आपने साहित्य और पत्र-पत्रिकाओं की दुनिया में अब तक बाहर रखे गए पाठकों एवं युवाओं के साथ बाल और ‘लोकप्रिय’ साहित्य को लेकर गंभीर हस्तक्षेप के उद्देश्य से ‘अक्षरौटी’ का संपादन/प्रकाशन संभाला है। भरपूर सहयोग का वादा करते हुए शुभकामनाएँ..

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  5. मनोज जी शुक्रिया।

    जय सर , मैंने जब पहली बार घनश्याम को ये आइडिया बताया था , तो उसी के उत्साह से 'अक्षरौटी' बन सकी। नाम भी घनश्याम ने ही सुझाया। मेधावी और आलोचकीय प्रतिभा के धनी पंकज बोस के जुडने से यह काम और आसान हुआ। राम कुमार ने सहायता की। चिराग ने खुद रात रात भर जाग कर टाइप किया है और कम्पोज़ किया। राजेश सर ( पेरियार वाले ) ने अपने रेखाचित्र उपलब्ध कराये। किस किस का नाम लिया जाये, अतः संक्षेप में अरुण कमल जी से मुयाफ़ी के साथ -

    सारा लोहा उन लोगों का , अपना केवल इन्टरनेट।

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  6. संपादक मंडल - नीलाम्बुज सिंह ,पंकज कुमार बोस , घनश्याम कुमार 'देवांश'--- आप सभी को बहुत बहुत बधाई इस प्रवृत्ति के लिए.
    ચોપડાંપૂજન नाम से ब्लॉग का निर्माण भारतीय भाषाओं में चल रही साहित्यिक गतिसिधि को अर्पण है. आप के पास हिंदी साहित्य सम्बंधित कोई समाचार या जानकारी हो तो वो मेरे साथ साझा कर सकते है. हर नए अंक प्रकाशित होने के मौके पर आप पत्रिका के अंक के बारे में ब्लॉग के लिए मीटर भेज सकते है.इस के अलावा कोई भी साहित्यिक समाचार, पुस्तक समीक्षा / जानकारी का स्वागत है. मेरा मेल आईडी, इस ब्लॉग के लिए : raajubook@gmail.com और ब्लॉग की लिंक : ચોપડાંપૂજન : http://wereader.blogspot.in/

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